जंगलों में दहकती आग और झुलसता वनकर्मी, और पर्यावरण

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तलोधी (बा.)यश कायरकर
लोगों का अज्ञान, कर रहा है पर्यावरण की नुकसान

गर्मी के दिनों में जंगलों में आग लगना शुरू हो जाने की वजह से जंगल परिसर जलकर खाक हो जाता है। नई-नई उगने वाली झाड़ियां , छोटे छोटे जीव जंतु ,पंछियों के घोसले, रेंगने वाले सरिसृप प्राणी, आग में जल जाते हैं , इस वजह से आग में जलने से पेड़ पौधे के साथ पर्यावरण को भी काफी मात्रा में हानि होती है । जो कभी न भरने वाला है। इस आग को सिर्फ वनविभाग ही गंभीरता से लेता है । और जो हर साल गर्मी के दिनो मे जंगल को लग्ने वाली आग को बुझाने में वनविभाग ही खुद पुरी तरह से उलझ जाता है ।

वनविभाग को छोड़कर इस बात कोई भी गंभीरता से नही देखती है। और ना ही कोई जनप्रतिनिधि को गंभीरता से इस आग के बारे में सोचने के लिए कोई वक्त  है।  इसी तरह  अगर साल जंगल मे आग  लागती रही तो एक दिन संपुर्ण सृष्टि को जलाकर राख हो जाएगी।
जंगलों में हर साल आग कैसे लगती है? इस बारे में भी गंभीरता से सोचना अब जरूरी हो गया है। जंगल मे  हजार बार आग लगती है उसमे एखादी बार ही नैसर्गिक आग लगने की संभावनान होती है। ज्यादातर हमेशा  मानव-निर्मित ही आग होती हैं। पिछले कुछ सालों में जिस प्रकार से जंगल मे जब जब  आग लगती है लगी है ज्यादातर  जंगल परिसर से तेंदुपत्ता संकलन के ठेके से होने की संभावना हैं तेंदुपत्ता संकलन के समय ही  जंगल में आग लगने की घटनाएं  देखने मिलती है ।  80 प्रतिशत आग तेंदूपत्ता तोड़ने वालों की और से लगाई जाती है। (जब भी किसी क्षेत्र में तेंदुपत्ता संकलन करने का ठेका नहीं होता है उस वर्ष वहां के जंगल परिसर क्षेत्र में आग लगने की घटनाएं नहीं के बराबर होती है। उदाहरण के रूप में तलोधी के या आसपास के वनक्षेत्रो मे साल 2020 मे जंगलों में आग लगने की घटनाएं नहीं थी। जब की तेज़ धूप और गर्मी आज के मात्रा में काफी अधिक थी, तेंदुपत्ता के पेड़ कि छाल थोडी जलने पर ही नयी पत्तियां आएगी और  तोड़ने में आसानी होती है ) और 10 प्रतिशत महुआ फूल संकलन करने वालों की ओर से लगाई जाती है ( ताकि महुआ के पेड़ के निचे से महुआ फूल संकलन करने मे आसानी हो सके) और बाकी 10 प्रतिशत आग की वजह हैं अतिक्रमण, विकृत विचार प्रवृत्तियों के लोग ही होते हैं ताकि पेड़ पौधे जलने से बंजर और खाली पड़ी जमीन पर कब्जा किया जाए, या फिर वनकर्मीयोंको से किसी बात की नाराजी की भड़ास निकालने के लिए किया जाता है।


वजह चाहे कोई भी हो पर परीणाम तो काफी गंभीर होता हैं। वन्यजीव से लेकर जंगल, पर्यावरण, परिसर के किसानों, वन विभाग के वनकर्मी, परिसर के लोग सभी इस जंगल की आग की लपटे मे झुलस जाते हैं।
जंगलों में लगने वाली आग से घास, पौधे जल जाते हैं. सरीसृप प्राणी, जैसे नेवले,सांप, ज़मीन पर घौंसले बनाने वाले पंछियों की आग में झुलसने से मौत होती हैं, घास, पौधे जल जाते हैं, जिसके चलते वन्यजीव जैसे हिरनों, बंदरों, का भोजन जलजाने से उन्हें जंगल में खाना नहीं मिलता है, जिस वजह से जंगल छोड़कर इन जंगली तृनभक्षी जानवरों को मजबुरन गांवों-कस्बों, खेती-बाड़ी की ओर आना पड़ता है। जिसके चलते किसानों की फसलों को वो बर्बाद करते हैं, जिस वजह से किसानों को भी भारी नुकसान पहुंचता है। इन घास पौधे खाने वाले जानवरों के पिछे पिछे बाघ, तेंदुआ, जैसे शिकारी जानवर भी खेती-बाड़ी, गांवों के करीब आ जाते हैं जिस के चलते परिसर के लोगो को लिए जान का खतरा पैदा हो जाता हैं।
और इन सभी परिस्थितियों को संभालने में वनकर्मीयोंको रात-दिन , कभी आग बुझाने तो, कभी हिंस्त्र पशुओं को संभालने में और तो और वास्तविक परिस्थितियों से अनभिज्ञ और गुस्सैल लोगों की वजह से बिगड़ते हालात को भी संभालने में, तो बिना किसी सोच के चिल्लाने वाले जनप्रतिनिधियों का गुस्सा झेलने में वनकर्मीयोंको काफी मानसिक तनाव से होकर गुजरना पड़ता है।
“जंगलों में आग लगने वालों पर सख्त कार्रवाई करने, और जिस भी जंगल परिसर क्षेत्र मे तेंदुपत्ता संकलन का परवाना दिया गया है और अगर वह जंगल परिसर क्षेत्र आग में जल जाता हैं, वहा से तेंदुपत्ता संकलन करने पर उस साल पाबंदी लगाने की जरूरत है। और वनविभाग के वरिष्ठ अधिकारियों को इस बात पर गंभीरता से सोचना और चाहिए” -ऐसे स्वाब नेचर केयर संस्था के पदाधिकारियों का कहना है।

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